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इतिहासकारो का मत है कि महात्मा बुद्ध के  समय में  शाक्य कोई बहुत बड़ी सल्तनत नहीं थी । लुम्बिनी तो वैसे भी बहुत छोटा सा गाँव था। अजीत कुमार त्रिपाठी के एक शोध के अनुसार लुम्बिनी की उस समय की राजधानी कपिलवस्तु वर्तमान  (कपिलेस्वर में ) थी। यह जगह वर्तमान के नेपाल में है। महात्मा बुद्ध का जन्म ईशा पूर्व 560 के लगभग बताया गया है। और ईशा पूर्व 535 महात्मा बुद्ध ने घर छोड़ा था। इससे आगे की कहानी सभी जानते हैं ।
मगर मैं यहाँ जिस बात पर प्रकाश डालना चाहता हूँ वो ये है कि  ईशा पूर्व 261 में जब अशोक ने कलिंग पर अकर्मण किया था उस समय पर ना तो कोई लुम्बिनी गाँव था और ना ही कोई कपिलवस्तु नाम की राजधानी। जब अशोक  कलिंग के खून खराबे से भाव विभोर हो गए थे तो दो साल  बाद वो फिर उस जगह  गए जहां लुम्बनी बताया जाता था ओर लोगों की दन्त कथाओं के अनुसार आज के कपिलेस्वर में एक  शिला लगवाई और कपिलेस्वर का स्तूप  तयार करवाया और बुद्ध  को शाक्यमुनि का नाम दिया । 
टिपण्णी यह  है कि 200 साल के बाद भी शाक्यवंशियों ने बुद्ध को पूरी तरह से नहीं अपनाया था। क्योकि  कोई भी शाक्य आज भी ये नहीं चाहता कि बुद्ध से प्रभावित  होकर  किसी का बेटा 29 साल की उम्र में घर छोड़ दे और भगवें धारण  करके बाबा (जोगी) बन जाए । यही  सोच  उस समय  के कलिंग  वासी शक्यो की रही होगी और अपने समाज को उनसे दूर रखने के लिए  अपने आप को उनकी  शिक्षाओं से जुड़ने नहीं दिया होगा। कयोकि  हमारा समाज आज भी लोभ, लालच और इच्छाओं से भरा हुआ है। कहने को तो लोग शाक्य समाज के कार्यकरता बने हुए हैं मगर कार्यकर्ता के नाम पर राजनीति में पैर जमाकर अपने परिवार के लड़कों को नौकरी लगाकर मोटा दहेज़  मांगने की तैयारी कर रहे हैं। माफ़ करना ये सभी लोगों पर लागु नहीं होता 1000 में 2-4 ईमानदार  भी हैं जिनकी बदोलत ये समाज  चल रहा है।
एक  अन्य शोध में बताया गया है कि बुद्ध के पिता सुद्दोधन का विवाह रोहिणी नदी के उस पार के राजा देवदाहा  की पुत्री  मायादेवी ( महामाया) से हुआ था। जो कोलिया गौत्र  की थी। बाद में सुद्दोधन ने महामाया की छोटी बहन  प्रजावती से दूसरी शादी की। दंडपानी जो महात्मा बुद्ध के मामा थे उनकी बेटी यशोधरा (गोपा) से महात्मा बुध  का विवाह हुआ    था। सिद्धार्थ  के जन्म के सात दिनों बाद माता मायादेवी की मृत्यु हो गई थी। उनकी मृत्यु के बाद ब्रह्मदत्त ने कोणार्क में महामाया के  एक मंदिर का निर्माण कराया। सम्राट अशोक के बाद वहां के शाक्यों  ने बुद्ध को माना  जरुर मगर ऐसा लगता है की उनसे जबरदस्ती मनवाया गया था की गौतम भगवान् हैं। 
क्योकि एक तरफ तो ये कहा गया है की महामाया को देवमाता मान कर पूजा जाता था दूसरी तरफ इतिहासकारों ने  कोणार्क  का माता मंदिर जर्जर हालत में ढूंढा  था और उसमे माता की कोई मूर्ति भी नहीं थी। इसके लिये ये भी कहा  जा सकता है कि  मुसलमानों ने तोड़ दिया होगा।
एक बात की और पुस्ती भी की गई है कि  उस समय भी शाक्यों में आपसी विवाद रहते थे और एक दुसरे से लड़ते रहते थे। कोला और चैत्र  सल्तनत की  आपसी लड़ाई रहती थी। जो बुद्ध के ससुराल की तरफ की दो छोटी छोटी कोमें हैं ।  बाद में इन सभी जातिओं ने आपस में लड़कर अपना वजूद खो देने के कारण अशोक के आक्रमण के बाद वहां पर ना तो कपिलवस्तु था और लुम्बिनी एक गुमनाम बस्ती बन गई । बिल्कुल आज के शाक्य समाज की तरह ।
चिंता का विषय तो ये है कि  हम शाक्य आज भी वैसे ही हैं और अपने आप को बदलने का प्रयत्न भी नहीं कर रहे हैं । क्योकि अगर हम अपने बच्चे पढ़ा रहे हैं तो सिर्फ मोटा दहेज़ मांगने के लिए। लड़किओं को एक तरफ तो कन्या कह  कर पूजते हैं और दूसरी तरफ उन्ही का दहेज़ के रूप में चीर हरण करते हैं।
एक तरफ तो हम शाक्यसमाज के कार्य कर्ता  बनते हैं और दूसरी तरफ दूसरी जाती का नेता चुनने के लिए हम अपने ही शाक्य भाईओं का खून बहते हैं।

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